सभाओं से मछुवारों के गाँवों तक (in Hindi)

By अनुवाद: शीबा डेसोर; लेखक: टी एम् कृष्णाonNov. 15, 2016in Perspectives

Translated specially for Vikalp Sangam; विकल्प संगम के लिए विशेष अनुवाद

(Sabhaon se Machhuvaron ke gaovon tak)

“The Urur Olcott Kuppam Vizha has spurred many debates beyond art — about people, spaces, livelihoods, environment, security, sharing and ownership.” Picture shows a performance at the Vizha in 2015.
ऊरूर ऑल्कॉट कुप्पम विरा ने कला से परे कई अन्य चर्चाओं को भी बढ़ावा दिया है जैसे कि लोग, वातावरण, आजीविका, सुरक्षा, सहभाजन और अधिकारों के विषय पर चर्चा। तस्वीर: बिजॉय घोष

एक ऐसा कला-सम्बंधित उत्सव जो शास्त्रीय कला और मछुवारों के कलात्मक क्रिया-कलापों को एक-बराबर स्थान देता है तांकि हर कला हर जगह पहुँच पाए।

समाज के बहुस्तरीय विभाजनों के बीच कोई भी दो लोग वास्तव में एक सामान नहीं होते। समुदायों की बात करें तो यह भेदभाव और भी पेचीदा बन जाता है। इस सचाई के अन्तर्गत ऐसी उम्मीद करना कि कला की दुनिया इससे अप्रभावित रहेगी, एक काल्पनिक आदर्श होगा। हम कई बार बड़े अभिमान के साथ इस घिसी-पिटी कहावत का चयन करते हैं कि कला कोई सरहद नहीं जानती। हम यह भूल जाते हैं कि सच्चाई बिलकुल अलग है। अगर कला को सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से सक्षम बनाना है तो एक कलात्मक वार्तालाप के रूप में उसकी नवरचना करनी होगी। एक ऐसा कलात्मक वार्तालाप जो समतापूर्ण और प्रेरणादायक हो। इस रूप को वास्तविकता में उतारने के लिए कलाकारों और उनकी रचनात्मकता को इसकी ओर सक्रिय होना होगा।

एक सामाजिक-सांस्कृतिक वार्तालाप

इसी सोच के साथ मैंने एक ऐसे कला-उत्सव की कल्पना करनी शुरू की जो कि मेरी विशेषाधिकृत संभ्रांतवादी शास्त्रीय दुनिया से दूर अन्य भूमि का अन्वेष करे।  जो मेरी कलात्मक श्रेष्ठता पर प्रश्न उठाते हुए, इन स्थानों के लोग ओर उनकी कला का सम्मानतापूर्ण रूप से जश्न मनाये। मैं अपने इस विचार को नित्यानंद जयरमन नाम के एक सामजिक कार्यकर्ता के पास लेकर गया जिसने इस विचार को एक बिलकुल अलग ही दृष्टिकोण से देखा। उसने इस विचार में ऊरूर ऑल्कॉट कुप्पम के मछुवारों के छिपे हुए शहरी गाँव को प्रकाशित करने का मौका देखा। चेन्नई के लोगों को उस गाँव में आमंत्रित कर मछुवारों से जुड़े कई गलत सामान्यकरणों को चुनौती देने का मौका।  इस विचार के समर्थन में जल्द ही कई और लोग जुड़े, जिनके खुद के उद्देश्य और कहानिया थीं, लेकिन एक सामजिक- सांस्कृतिक वार्तालाप की आवश्यकता के बारे में सभी की आम सहमति थी। इस प्रकार 2014 में ऊरूर ऑल्कॉट कुप्पम विरा का जन्म हुआ।

पर हमारी ही श्रेणी के लोग हमसे कई जटिल सवाल कर रहे हैं। तुम लोगों पर शास्त्रीय संगीत क्यों थोप रहे हो? उनकी अपनी कला है। क्या उन्हें वास्तव में इसकी ज़रुरत या इच्छा है?  

पहला, इस तरह के सवालों में एक निहित ब्रह्माण्ड विज्ञान छिपा है जो समझता है कि शास्त्रीय और अन्य कला का ग्रहपथ कभी मिल नहीं सकता। दूसरा, ऐसे सवालों में एक रियायत का रंग है, इन दो वर्गों कि कला और यह दो वर्ग सामजिक रूप से गैर बराबर हैं तो इन्हें अलग ही रहने देना चाहिए। ऐसी प्रतिक्रिया से हम ‘दूसरों’ को शास्त्रीय संगीत उनकी खुद की शर्तों पर अपनाने पर एक रोक लगाते हैं।  हमें यह मानना होगा कि वर्तमान में शास्त्रीय संगीत रोबदार व्यक्तिगत गुट्टों तक सीमित है। बाहर ‘तुम्हारा स्वागत नहीं है’ का तख्ता लगा है। पर भीतर वाला अपनी एक नज़र से ही ‘शुद्धता’ की हिफाज़त करता है। लेकिन कुप्पम भी एक आसान वातावरण नहीं देता। बहुत से लोगों के लिए वहाँ प्रवेश करना एक असुखद और असुरक्षित अनुभव होता है। ऊरूर का प्रयास यही है कि अपने खुले वातावरण से लोगों को इन भावनाओं को पार करने में सक्षम बनाये। यहां लोग ऐसे सौन्दर्यशास्त्र-संबंधी अनुभव को बांटते हैं जो अपना-पराया की सख्त सीमाओं को भुला देता है।

निस्संदेह, यह एक बदलाव की परियोजना नहीं है। इस उत्सव में विभिन्न समाजों और स्थानों से आए विविध कला के रूपों की झलक मिलती है। इस प्रयोग का एक महत्त्वपूर्ण पहलु यह है कि यहां मछुवारों के कला रूपों को एक समान स्थान मिलता है। इस बराबरी के कारण, हमारे ग्रहण का स्वभाव ही बदल जाता है। ‘उच्चतर’ कला अनोपचारिक, स्वाभाविक और सुगम बन जाती है और ‘निचली’ कला गंभीर, मूल्यवान, और आदरणीय बन जाती है। ऐसा उलट-पलट कला की दीवारों को तोड़कर एक निरंतर पहुँच की रचना करता है। इसी खुलेपन में कला का जश्न मनाने का, आनंद लेने का, नकारने का, और व्यंग्य करने का अधिकार अंतर्निहित है- कोई भी कला- चाहे वह विल्लु पट्टू (संगीतमय कहानी) हो या इंडी ब्लूज़। लेकिन यहां पहुँचने के लिए मौजूदा ढांचों को तोड़ना ज़रूरी है। कुछ लोग जो उत्सव में कभी नहीं आये वह एक दूसरा सवाल भी पूछते हैं- ‘तो क्या अब ‘वे लोग’ शास्त्रीय संगीत और नृत्य सीखना चाहते हैं?’ कोई यह नहीं पूछता के क्या ‘हम’ पराइटम या गण (मातहत समुदायों से जुड़े कला रूप) सीखना चाहते हैं? ‘निचले’ के  ‘उच्चस्तर’ की ओर आकर्षण होने या न होने का ही सवाल आता है, जैसे कि उल्टी स्थिति तो संभव ही न हो।

असमानताओं को खोजना

लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं की दुनिया से एक और प्रकार की आलोचना मिली है। उनकी चुनौती है कि यह प्रयास  सामाजिक-सांस्कृतिक दूरियों को और सदृढ़ करता है। मग़रूर शास्त्रीय मंचों पर पराइटम या गण संगीत क्यों नहीं पहुँच पाता? इन मातहत कलारूपों की मौजूदी की मांग के साथ तुम ऐसे स्थलों का घेराव क्यों नहीं कर रहे? ऐसी आलोचना को हम इच्छानुसार नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। लेकिन हम चाहते हैं कि हम ऐसे स्थल पर मात्र निशानी के रूप से नहीं पर सम्मानपूर्ण पहुंचें। इसके लिए प्रभावशाली वर्गों के कई और लोगों को भी अपने सन्दर्भ से निकल कर कला को अनुभव करना होगा। आशा है कि इसी से बदलाव की शुरुवात होगी। इसी कारण ऐसे प्रयोग गैरबराबरियों को सदृढ़ नहीं करते, बल्कि इन गैरबराबरी के मालिकों को लोगों और जीवन को एक दूसरी नज़र से देखने के लिए मजबूर करते हैं। और यह तो केवल एक शुरुवात है। कला के उच्चतर विभागों में किसी और प्रयोग के उभरने की संभावना को यह प्रयोग नहीं नकारता।

2015 में सालभर इस प्रयास ने कला से परे कई अन्य चर्चाओं को भी बढ़ावा दिया है जैसे कि लोग, वातावरण, आजीविका, सुरक्षा, सहभाजन और अधिकारों के विषय पर चर्चा। परस्पर रूप से यह सम्बन्ध एक सीखने की प्रक्रिया बना है जिसमें हम निरंतर नयी विभिन्नताएं खोजते हैं। इससे हमने सहभागिता को एक पेचीदे रूप से समझना सीखा है। जहां गाँव के बच्चे उत्सव में उत्साही कलाकारों के रूप में भाग लेते हैं, वहीँ गांव के युवा और बुज़ुर्ग दर्शकों के रूप में हस्ते, मुस्कुराते और संगीत का आनंद लेते हुए दिखते हैं। लेकिन फिर यह ख़याल आता है- क्या जिस तरह ‘वे लोग’ ‘हम लोगों’ को (हम ‘उच्च’ श्रेणी के लोगों को) देखते हैं, क्या उस नज़र में भी एक असमानता नहीं है? लेकिन अपने सामर्थ के अनुसार, उन्होंने हमारा पूरा समर्थन किया है और इस साल फिर ख़ुशी से हमारे मेज़बान बने हैं। किस तरह हम इस स्वीकृति का सामने आती बाधाओं को पार करने के लिए उपयोग करें, यह जानते हुए कि इस प्रयास कि अपनी सीमाएं हैं?

इस सामाजिक- सांस्कृतिक प्रयोग से अनेक सवाल और कुछ जवाब निकल कर आये हैं। यही उसे जीवित रखता है। हम रास्ता ढूँढ़ते रहते हैं। रस्ते में कभी लड़खड़ाते हैं, गिरते हैं, और फिर मिट्टी झाड़ कर उठने की कोशिश करते हैं। यह सिर्फ एक प्रयास है, एक ईमानदार प्रयास जो अभी जारी है। ऐसे कई अन्य प्रयासों की आज ज़रुरत है जिसमें से हर प्रयास एक अलग रास्ता खोजता हो, जो मिलकर आपसी सम्बन्ध का एक नया शब्दकोष विकसित करे।

(टी एम् कृष्णा कर्नाटिक संगीत के एक गायक और लेखक हैं।)

अंग्रेजी में लेख पढ़िए; Read the original article From sabhas to fishing villages

(यह लेख पहले अंग्रेजी में ‘द हिन्दू‘ पत्रिका में प्रकाशित किया गया था।)

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Manoj Kumar fisher August 4, 2020 at 3:25 pm

मछुआरा समाज हजारों साल पहले आदिमानव में आया करता था जोकि नदियों से मछली पकड़ता और फिर नदियों से बालू निकालने लगा मोरम निकालने लगा पहाड़ से गिट्टी बनाने लगा तालाबों में सिंघाड़े बोलने लगा और झीलों में खेती करने लगा