बीज विरासत को सहेजता किसान (in Hindi)

By बाबा मायारामonNov. 27, 2015in Food and Water

बाबूलाल दहिया, मध्यप्रदेश के सतना जिले पिथौराबाद गांव के क्रषक जिन्होने प्राक्रुतिक खेती मे बढिया पहल की, उन्हे पद्म श्री मिला है, निम्न बाबा मायाराम का मेल देखें। बाबा ने उनपर विकल्प सन्गम के लिये लेख लिखे हैं, जिनका लिन्क निम्न है। बाबूलालजी अन्न विकल्प सन्गम मे भागेदार रहे हैं। उन्हे बहुत बधाइ!

Written specially for the Vikalp Sangam website

इस बार बाबूलाल दाहिया थोड़े परेशान दिखे। उनकी परेशानी का एक कारण हाल  में हुई तेजाबी बारिश थी जिससे धान में रोग लग गया। लेकिन इससे वे बहुत निराश नहीं थे क्योंकि जो धान रोगग्रस्त हुई है वह लंबी अवधि की थी, कम अवधि और मध्यम अवधि की धान की फसल अच्छी आई है।

मैं उनके गांव दूसरी बार गया था। सतना जिले के उचहेरा ब्लाक में है पिथौराबाद।  मैहर से करीब 30 किलोमीटर दूर। जब पहुंचा तब शाम हो गई थी। दूसरे दिन सुबह उनके खेत गए, जहां वे पिछले 10 वर्षों से देशी बीजों के संरक्षण और संवर्धन का काम कर रहे हैं।

बाबूलाल दाहिया बता रहे थे कि सीमेंट फैक्ट्रियों की चिमनियों का धुआं और वाहनों के प्रदूषण के कारण वायुमंडल में तेजाब जमा होता जा रहा है और उसी के परिणामस्वरूप तेजाबी बारिश हुई है। जहां पेड़ हैं, उसके नीचे का धान अच्छी है। पेड़ों ने उसे बचा लिया। बाकी धान में रोग लग गया।  

बाबूलाल दाहिया की कुल 8 एकड़ जमीन है जिसमें से 2 एकड़ में ही देशी धान का प्रयोग कर रहे हैं। बाकी 6 एकड़ में भी देशी किस्में लगाते हैं, वह भी बिना किसी रासायनिक खाद के। साथ ही उचहेरा ब्लाक के 30 गांवों में भी किसानों के साथ मिलकर धान और मोटे अनाज (कोदो,कुटकी,ज्वार) की खेती कर रहे हैं।

पेशे से पोस्ट मास्टर रहे बाबूलाल दाहिया की खेती-किसानी के साथ-साथ साहित्य में रूचि रही है। वे बघेली के प्रसिद्ध साहित्यकार हैं।  लेकिन जबसे उन्हें यह एहसास हुआ कि जैसे लोकगीत व लोक संस्कृति लुप्त हो रही है, वैसे ही लोक अन्न भी लुप्त हो रहे हैं, तबसे उन्होंने इन्हें सहेजने और बचाने का काम शुरू कर दिया।

उनके पास देशी धान की 110 किस्में हैं। इन सभी  धान के गुणधर्मों का उन्होंने बारीकी से अध्ययन किया है। वे हर साल इन्हें अपने खेत में बोते हैं और अध्ययन करते हैं। 

दाहिया जी कहते हैं हम विश्वास के साथ कह सकते हैं कि धान और कोदो हमारे अपने क्षेत्र के अन्न हैं। इन दोनों के जंगली स्वरूप अब भी मौजूद हैं। धान की जंगली किस्म को पसही कहते हैं। हलशष्टी त्योहार को महिलाएं व्रत करने के बाद इसका ही चावल खाती हैं। पसही धान डबरों, पोखरों में होता है।

यह ऐसी ही हर साल पोखरों और डबरों में हर साल अपने आप उगती है, झड़ती है और वंश परिवर्तन (बीजों में बदलाव) करती जाती है। मनुष्य ने इनके गुणधर्मों का अध्ययन कर कालांतर में जंगली डबरों से अपने द्वारा बनाएं पानी वाले खेतों में इसे उगाना शुरू किया होगा, जहां लंबे समय तक पानी संचित रहे। बाद में चावल हमारे भोजन में शामिल हो गया।

वे बताते हैं कि पहले हमारे क्षेत्र में पचासों तरह की धानें हुआ करती थी।  इनमें बहुत विविधता है। जैसे गलरी पक्षी की आंख की तरह होता है गलरी धान। इसी तरह किसी धान का दाना सफेद होता है तो किसी का लाल। किसी का काला तो किसी का बैंगनी, किसी का मटमैला। कुछ का दाना पतला तो किसी का मोटा और कोई गोल तो किसी का दाना लंबा। कुछ धान की किस्मों के पौधे हरे होते हैं तो किसी के बैंगनी। इनमें न केवल विविधता है बल्कि अलग-अलग रूप रंग का अपना विशिष्ट स्वाद व अपूर्व सौंदर्य है। परंपरागत देशी धान की विविधता के कई किस्से-कहानियां जनश्रुतियों में मौजूद हैं।

जिसमें कुछ सुगंधित हैं तो कुछ बिना सुगंध की। कम अवधि में पकने वाली किस्मों से लेकर लंबी अवधि की किस्में हैं। हल्की और कम भराव वाली जमीन में 70 से 75 दिन में पकने वाली सरया, सिकिया, श्यामजीर, डिहुला, सरेखनी किस्में हैं तो मध्यम समय में 100 से 120 दिन में पकने वाली नेवारी, झोलार, करगी, मुनगर, सेंकुरगार, आदि हैं। इसके अलावा 120 से 130 दिनों में पकने वाली बादल फूल, केराखम्ह, बिष्णुभोग, दिलबक्सा आदि धान किस्में शामिल हैं।

लैला-मंजनू धान में दो सफेद दाने निकलते हैं। कलावती का पत्ता भी काला होता है। गांजाकली अधिक उत्पादन देती है। अलग-अलग किस्मों को बोने के कारण हैं। किसान ऐसी धान खेत में बोता है, जो खेत मांगता है। यानी हल्की जमीन वाला खेत है तो जल्दी पकने वाली धान बोएगा।

कुछ धान की किस्में ऐसी होती हैं जिन्हें किसान अपने खाने के लिए बोते हैं। बजरंगा ऐसी ही धान है, जो जल्द हजम नहीं होती। कुछ धान ऐसी होती हैं जिन्हें किसान बाजार में बेचने के लिए उगाता है जिससे अच्छा पैसा मिल सके। ऐसी धान की किस्मों में गांजाकली, निबारी और कोसमखंड और लचई है। कुछ ऐसी धानें हैं जिन्हें आतिथ्य सत्कार के लिए बोया जाता है। इनमें कमलश्री, तिलसांड, विष्णुभोग और बादशाह भोग हैं।

जंगली सुअर से फसल को बचाने के लिए ऐसी धान बोते हैं जिनमें कांटे होते हैं। इससे जुड़ी एक कहावत भी है- धान बोवै करगी, सुवर खाय न समधी। यानी किसान को करगी धान बोना चाहिए क्योंकि बाल में सकुर कांटे होने के कारण समधी को भी नहीं खिलाई जाती।

देशी धान की खासियत बताते हुए वे कहते हैं कि वह स्वाद में बेजोड़ होती हैं। इसलिए दाम भी अच्छा मिलता है। जबकि हाईब्रीड में स्वाद नहीं होता। देशी धान में गोबर खाद डालने से धान की पैदावार हो जाती है। जबकि हाइब्रीड या बौनी किस्मों में रासायनिक खाद डालनी पड़ती है। जिससे लागत बढ़ती है और भूमि की उर्वरक शक्ति भी कम होती है।

देशी धान ऋतु के प्रभाव से पक जाती है। जैसे कोई एक ही किस्म की धान अलग- अलग समय में बोई जाए तो वे एक ही समय पक कर तैयार हो जाती हैं। यानी एक ही किस्म को अगर हम 1 जुलाई को बोएं और उसी किस्म को 1 अगस्त को बोएं तो वे एक साथ या कुछ दिनों के अंतर से ही पककर तैयार हो जाएंगी।

देशी धान को बार-बार निंदाई की जरूरत नहीं पड़ती। एक बार निंदाई हो जाए तो बहुत है। क्योंकि इसके पौधे को खरपतवार नहीं दबा पाती। क्योंकि इसका पौधा काफी ऊंचा होता है। कीट व्याधि को मकड़ी, मधुमक्खी, चींटी और मित्र कीट ही नियंत्रित कर लेते हैं। केंचुएं निस्वार्थ भाव से 24 घंटे गुड़ाई कर जमीन को भुरभुरा बनाते हैं, खेत को बखरते हैं जिससे पौधे की बढ़वार में मदद मिलती है।

हमारे पूर्वज बादलों के रंग, हवा के रूख, अवर्षा, खंड वर्षा का पूर्वानुमान लगाने में माहिर थे। जैसे एक कहावत है कि पुरबा जो पुरबाई पाबै, सूखी नदियां नाव चलाबैं। यानी पूर्वा नक्षत्र में पुरवैया हवा चलने लगे तो इतनी वर्षा होती है कि सूखी नदियों में इतना पानी हो जाता है कि नाव चलनी लगे।

वे बताते हैं जैसे हमारे देशी बीज खत्म हो रहे हैं वैसे ही उससे जुड़े व परंपरागत खेती से जुड़े कई शब्द भी खत्म हो रहे हैं। पूरी कृषि संस्कृति और जीवन पद्धति खत्म हो रही है। अब हमारा काम गेहूं, चावल और दाल जैसे शब्द से चल जाता है। लेकिन पहले बहुत सारे अनाज होते थे। उनके नाम थे जैसे समा, कोदो, कुटकी, मूंग, उड़द, ज्वार, तिल्ली आदि। फिर उन्हें बोने से लेकर काटने तक कई काम करने पड़ते थे।

 बोवनी, बखरनी, निंदाई-गुड़ाई, दाबन, उड़ावनी और बीज भंडारण आदि। खेती की हर प्रक्रिया के अलग-अलग नाम थे। यह जरूर है कि ये शब्द किसी शब्दकोष में नहीं लेकिन लोक मानस में थे। बुजुर्ग अब भी इन शब्दों को आत्मीय ढंग से याद करते हैं। लेकिन खेती का फसलचक्र बदलने से, एकल खेती होने से ये शब्द भी लोप हो रहे हैं।

 बौनी किस्मों और देशी धान का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले दाहिया ने बताया कि देशी किस्मों में स्थानीय हवा-पानी के अनुकूल अपने आपको ढालने की क्षमता होती है। जैसे निरंतर सूखे से लड़ते और हजारों सालों से इस भूमि में उगते-उगते देशी धान ने अपना ठंडल बड़ा कर लिया था जिससे वह अपने पौधे में अधिक पानी का संचय कर सके। बाद में बाल आ जाने के पश्चात वे ओस में ही पक जाती हैं. बाहर से आयातित बौनी किस्मों में वह गुण नहीं है।

पहले हमारे प्रदेश में कभी 1 लाख से ज्यादा देशी धानों की किस्में हुआ करती थी। अब यह संख्या घटकर बहुत कम हो गई है। इनमें से दाहिया जी के पास 110 किस्में मौजूद हैं, जिनका वे लगातार संरक्षण व संवर्धन कर रहे हैं।

विश्व प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डा. आर. एच. रिछारिया ने ही अविभाजित मध्यप्रदेश (जिसमें छत्तीसगढ़ भी शामिल था )धान की 17 हजार देशी किस्मों को किसानों से एकत्र किया था जिसमें अधिक उत्पादकता देने वाली, सुगंधित व अन्य तरह से स्वादिष्ट किस्में शामिल थीं।

बाबूलाल दाहिया के मुताबिक वैज्ञानिक का कथन है कि एक किलो धान उगाने में 3 हजार लीटर पानी लगता है। इस लिहाज से धान की खेती करने वाले प्रदेश के किसानों को बारिश पर ही निर्भर होना पड़ता है। बारिश हुई तो तब तो ठीक है, लेकिन धरती के नीचे से भूजल निकालकर धान को पानी दिया जाए तो यह घाटा का सौदा है। इससे हर साल भूजल नीचे खिसकते जा रहा है।

वे कहते हैं कि यहां की नदियों में पानी उत्तर भारत की तरह हिमनदी नहीं हैं, जहां साल भर पानी रहता है। वहां वर्षा हो या न हो, बर्फ पिघलने के कारण नदियों में पानी बना रहता है। हमारे यहां की नदियां हिम पुत्री नहीं है, वन पुत्री हैं। लेकिन इन नदियों में पानी तभी होगा जब वन होंगे। पर वन जब होंगे तब हम पानी की किफायत बरतेंगे।

अगर हम तीन-तीन, चार-चार पानी वाली फसलें लगाएंगे तो धरती शुष्क होगी। पेड़ पौधे सूख जाएंगे। जब वन नहीं होंगे तो बारिश नहीं आएगी। क्योंकि जैसे बिना हवाई अड्डा के हवाई जहाज नहीं उतरता वैसी ही बिना वन के बादल भी नहीं उतरते। यानी बारिश भी नहीं होती। इसीलिए धान की खेती को लंबे समय तक करना है तो वनों को बचाना जरूरी है और कम पानी वाली देशी किस्मों की खेती करना जरूरी है।

पिछले कुछ वर्षों से बाबूलाल दाहिया ने देशी बीजों को बचाने का अभियान शुरू किया है। इसके लिए उन्होंने सर्जना सामाजिक सांस्कृतिक एवं साहित्यिक मंच बनाया
है, जिसके माध्यम से परंपरागत देशी बीजों के प्रचार-प्रसार का काम करते हैं। वे स्कूली बच्चों के साथ जैव विविधता जागरूकता अभियान चलाते हैं। 30 गांवों के किसानों के साथ देशी बीजों की खेती कर रहे हैं। देश-भर में घूम घूम कर किसानी कार्यशालाओं में जाते हैं और देशी बीजों का संरक्षण का संदेश देते हैं। इसके लिए उन्हें कई मंचों पर सम्मानित भी किया जा चुका है। उनका यह कार्य सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।

Read the English translation of the story (A farmer saving our heritage of Seeds)

Read about Babulal Dahiya-ji’s work in English, by the same author: Traditional agriculture has much to offer for India

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Raju Titus November 27, 2015 at 10:52 am

मेरी मुलाकात श्री बाबुलालजी और विजय जधारी जी से २१-२२- नवम्बर को ग्लोबल वार्मिंग और जलवायू परिवर्तन के रास्ट्रीय सम्मेलन में जो भोपाल में विधान सभा में आयोजित हुआ था मिला। दोनों के सम्बोधन सुने काफी समय व्यक्तिगत चर्चा भी हुई। इस सम्मेलन में श्री माईकल नागालैंड से पधारे थे जिन्होंने झूम खेती में जो सुधार किया वः त्रीफे काबिल है। जहाँ लोग केवल एक या दो साल झूम खेती कर रहे थे वो अब ५ साल तक करने लगे हैं। बाबुलालजी ने अपने में देसी पम्परागत खेती की अनेक इसी बनते बताई जो वैज्ञानिक नहीं जानते है ,इसी प्रकार विजय जर्धारी ने १२ अनाजो की खेती का जिक्र बताया की ये संरक्षित खेती हजारों साल से की जा रही है। हम बबमाया राम जी के आभारी है जो
इन गुमनामो को ढून्ढ कर सामने ल रहे हैं। अंत मेंउन तमाम लोगों को सम्मलेन के कर्ताधर्ता श्री अनिल माधव दवे ने बुलाकर आगामी यजना के लिए बुलाया था। देखें की क्या करते हैं ?