विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख (SPECIALLY WRITTEN FOR VIKALP SANGAM)
राजस्थान का एक गांव है मेनार। यह उदयपुर से 40 किलोमीटर दूर चित्तौड़गढ़ मार्ग पर स्थित है। वैसे तो यह आम गांवों की तरह है पर पक्षियों से विशेष लगाव के कारण खास बन गया है। इसकी देश-दुनिया में पक्षियों के गांव ( बर्ड विलेज) के नाम से पहचान बन गई है।
यहां साल भर सैलानियों, पक्षी प्रेमियों, पक्षी निरीक्षकों, पर्यावरणविदों और प्रकृतिप्रेमियों का तांता लगा रहता है। वे यहां आते हैं, तालाब किनारे पक्षियों को निहारते हैं, उनका कलरव सुनते हैं और नीले समंदर की तरह विशाल तालाब में पक्षियों की अठखेलियां और क्रीडाओं का आनंद लेते हैं।
मैं अपने चित्रकार बेटे के साथ यहां मई के पहले हफ्ते( 4-5 मई) में गया। वहां तालाब के किनारे पक्षी मित्र धर्मेंद्र मेनारिया (दोलावत) के घर ठहरा। 4 मई की शाम बहुत सुहानी लग रही थी। ठंडी हवा चल रही थी। पेड़ों की शाखाएं डोल रही थीं। बारिश की फुहार भी आ गई। यहां पक्षी खेल रहे थे, पानी में गोता लगा रहे थे, एक साथ चीं चीं, चाऊ चाऊ, गुटर गु की संगीतमय आवाजें हमें आनंदित कर रही थीं।
यहां के दो तालाब पक्षियों के लिए हैं। तालाबों का नाम भरमेला और ढंड है। यहां न कोई नाव चलती है, न मछलियों का शिकार। न कोई ध्वनि प्रदूषण है और न ही कोई मानवीय गतिविधि। एकाध साल पहले तक तालाब की जलभूमि में खेती होती थी। तरबूज-खरबूज लगाए जाते थे। गांव के लोगों ने सामूहिक रूप से निर्णय लेकर उसे भी बंद करवा दिया जिससे पक्षियों की गतिविधियों में कोई खलल न पड़े।
पक्षियों की सुरक्षा के लिए गांववाले और पक्षीप्रेमी सचेत हैं। उन्होंने तालाब के किनारे लगे पेड़ों को काटने पर पाबंदी लगाई है। तालाब के ऊपर से बिजली का हाईटेंशन तार गया था, इससे पक्षी तार से टकराकर मर जाते थे, उसे हटवाया।
इस साल जब अधिक तापमान से तालाब का पानी गरम हो गया और मछलियां मरने लगीं, तब ग्रामीणों को चिंता हुई। उन्होंने मछलियों को उथले तालाब से गहरे तालाब में स्थानांतरित किया और तालाब का पानी भी बदला। जिससे मछलियों को बचाया जा सके। इससे ग्रामीणों की जीवों के प्रति गहरी चिंता व संवेदनशीलता का पता चलता है।
यहां पक्षियों को परेशान करनेवाली किसी प्रकार की गतिविधियों पर गांववालों की नजर रहती है। जैसे कोई फोटोग्राफर पक्षियों को उड़ा कर तस्वीरें लेता है तो भी उसे ऐसा करने से रोका जाता है। स्वाभाविक तरीके से तस्वीरें लेने पर कोई मनाही नहीं है।
पक्षियों के प्राकृतिक रूप से अऩुकूल वातावरण बना रहे, इसकी कोशिश की जाती है। गांव के पक्षी मित्र धर्मेंद्र मेनारिया बताते हैं कि कई बार यह बात सामने आती है कि तालाब को पर्यटन की दृष्टि से कृत्रिम रूप से कांक्रीट-सीमेंट से बनाया जाए। लेकिन इससे पक्षियों को नुकसान होगा।
धर्मेंद्र का मानना है कि न तो सड़क बनाने की जरूरत है और न ही तालाब के पक्कीकरण की। न बीच में टापू बनाने की और न पेड़ों को काटने की। जैसा है वैसा ही रहने दें, तभी पक्षी आएंगे और रहेंगे। अन्य़था वे यहां से चले जाएंगे। पक्षी कृत्रिम वातावरण में रहना पसंद नहीं करते।
पक्षियों के लिए प्राकृतिक माहौल जरूरी है। तालाब के आसपास झाड़ियों की सफाई की जरूरत भी नहीं है। पेड़ों पर और आसपास की झाड़ियों में पक्षी आश्रय पाते हैं।
इन सब कारणों से मेनार पक्षियों की पसंदीदा जगह है। यहां 170 से ज्यादा पक्षियों की प्रजातियां हैं। जिसमें स्थानीय व प्रवासी पक्षी दोनों शामिल हैं। यहां जलीय व स्थलीय दोनों तरह के पक्षियों की प्रजातियां हैं। प्रवासी पक्षी ज्यादातर शीत ऋतु में आते हैं और यहां रहते हैं। वे ज्यादा ठंडे वालों इलाके से अपेक्षाकृत कम ठंडे इलाकों में रहना पसंद करते हैं।
यहां शीतकाल के आरंभ से ही अक्टूबर-नवंबर माह से देश-विदेश से पक्षियों का आना शुरू हो जाता है। और वे यहां फरवारी–मार्च तक रहते हैं। इनमें से कुछ को मेनार ऐसा भा जाता है कि वे यहीं के होकर रह जाते हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण शिवा डुबडुबी है, जो करीब दो दशक पहले हिमालय की तराईयों से यहां आई, और यहीं रह गई। उसे यहां की आबोहवा और वातावरण ऐसा भाया कि फिर वह वापस नहीं गई।
अब यही शिवा डुबडुबी यहां की शान है। तालाब किनारे हम उसे बहुत देर तक देखते रहे। सिर पर कलगी, लम्बी चोंच है, पानी में खेलते इसे देखना आनंददायक था। वह जरा सी आहट होने पर पानी में डूब जाती है। तैराक जैसी चपलता और फुर्तीली है। पानी में रहती है और पानी में ही तैरता हुआ घोंसला बनाती है, उसी में प्रजनन करती है।
यहां मोर, कोयल, कौवा, तोता, नीलकंठ, बगुला, बतख, जलमुर्गी,कबूतर, गौरेया, सुर्खाव, नकटा आदि कई प्रजाति के पक्षी देखे जाते हैं।
आयरलैंड के पक्षी विशेषज्ञ पाल पैट्रिक कुलेन, जो मेनार गांव कई बार आ चुके हैं, उनका इस गांव बारे में कहना है कि उन्होंने ऐसी जगह कहीं और नहीं देखी, जहां पक्षी मनुष्य से नहीं डरते। वे यहां के तालाबों से पक्षियों की 100 से ज्यादा प्रजातियों को देख चुके हैं। इसी प्रकार यह गांव अब कई पक्षी विशेषज्ञ व पर्यावरणविदों की पसंदीदा जगह बन गई है।
पक्षियों की दुनिया अलग है। मोटे तौर कह सकते हैं कि जो उड़ते हैं वे पक्षी कहलाते हैं, उनके पंख होते हैं। ऐसा भी दिखाई देता है कि सभी पक्षी एक जैसे होते हैं- वे उड़ते हैं, घोंसला बनाते हैं, अंडे देते हैं। लेकिन बारीकी से देखने पर इनमें काफी भिन्नता है। छोटी चिड़िया से लेकर पक्षी बहुत बड़े भी होते हैं। कुछ चिड़ियाएं ऐसी हैं जो हजारों मील सफर करती हैं। एक देश से उड़कर बहुत दूर दूसरे देश पहुंच जाती हैं। पक्षी जगत विशाल है, और इसकी खोज करना रोमांच से भर देता है। पक्षियों के रंग-बिरंग पंख तो उन्हें सबसे सुंदर बना देते हैं।
लेकिन प्रकृति के साथ मानवीय छेड़छाड़ के कारण पक्षियों को नुकसान पहुंचता है। मध्यप्रदेश के जिस सतपुड़ा अंचल में इन पंक्तियों का लेखक रहता है, वहां गेहूं के डंठल जलाकर खेत साफ करने का चलन बढ़ गया है जिससे सभी दृष्टि से नुकसान है। खेतों में ठंडलों के साथ पेड़-पौधे व छोटे-मोटे जीव जंतु जल जाते हैं। पेड़ पर ही पक्षी रहते हैं, अगर पेड़ नहीं रहेंगे तो वे कहां रहेंगे।
इसी प्रकार, रासायनिक खेती के कारण कई बार पक्षियों के मरने की खबरें आती रहती हैं। जहरीले कीटनाशकों से उनकी मौत हो जाती है। आजकल खेतों के आसपास दूर-दूर तक पेड़ दिखाई नहीं देते हैं, इसके कारण पक्षी भी नहीं होते हैं। क्योंकि पेड़ों पर ही पक्षी बैठते हैं, रहते हैं। जबकि खेती के लिए पक्षी बहुत उपयोगी हैं। एक तो वे कीट नियंत्रण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और उनके बीट से भूमि उर्वर होती है।
एक कारण जलवायु बदलाव का भी है। हाल के कुछ दशकों से तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। ज्यादा गरमी सहन न करने के कारण भी पक्षी मर जाते हैं। हाल के दिनों में जलवायु बदलाव के कारण नदी-नाले सूखने के कारण भी पक्षियों को पीने के पानी की समस्या से जूझना पड़ता है।
पिछले कुछ सालों में पक्षियों पर कई तरह से खतरा मंडरा रहा है। कई पक्षी विलुप्ति के कगार पर है। कुछ दशकों से पर्यावरण को शुद्ध करने वाले गिद्ध अब नहीं दिखते। घर-आंगन में फुदकने वाली गौरेया भी अब कम दिखती है। तोते भी कम दिखते हैं।
बढ़ते शहरीकरण और औद्योगिकीकरण ने भी पक्षियों के अस्तित्व को खतरे में डाला है। इसके कारण उन्हें प्राकृतिक रूप से रहने के लिए आश्रय व घोंसले बनाने के लिए पेड़ उपलब्ध नहीं रहते हैं। इसलिए वे बेघर हो जाते हैं।
कुछ सालों से बड़े जीवों को बचाने की मुहिम तो चली है, पर पक्षियों पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। हालांकि पक्षियों पर लोक गीत, कहानियां व लोक कथाएं बहुत सी हैं। सतपुड़ा अंचल में फड़की नृत्य भी होता है, जो एक चिड़िया होती है। छत्तीसगढ़ में सुआ (तोता) नृत्य प्रचलित है। इससे पक्षियों और मनुष्य के बीच रिश्ते का पता चलता है। बच्चों से लेकर बड़ों तक सभी को पक्षी बहुत अच्छे लगते हैं।
लेकिन अब तक पक्षियों के संरक्षण पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। अगर मनुष्य सभी प्राणियों में अपने आप को श्रेष्ठ होने का दावा करता है तो उसे सभी पक्षियों समेत सभी प्राणियों के संरक्षण व संवर्धन का दायित्व लेना चाहिए। इससे पर्यावरण व जैव-विविधता का भी संरक्षण होगा और इससे बेहतर और सुंदर दुनिया बनेगी। इस दृष्टि से मेनार गांव के लोगों का पक्षियों के प्रति विशेष लगाव, उनके प्रति गहरी संवेदनशीलता और उनका संरक्षण अनुकरणीय और सराहनीय है।