इस इलाक़े में ना तो बिजली है ना सड़क लेकिन स्थानीय लोगों की ज़बान पर पक्षियों के वैज्ञानिक नाम पहाड़े की तरह चढ़े हुए है. पक्षियों को बचाने के लिए यहां चौपाल लगती है और पक्षियों की पहचान के पाठ पढ़ाए जाते हैं.
स्वागत है आपका बिहार के भागलपुर इलाक़े के कोसी दियारे में जो पक्षियों की चहचहाहट से गुलज़ार रहता है. इस इलाक़े में गरुड़ की एक दुर्लभ प्रजाति “ग्रेटर एडजुटेंट” का तेज़ी से प्रजनन हो रहा है. स्थानीय लोग इस पक्षी को ‘गरुड़’ कहते है.
आलम ये है कि अब इनके संरक्षण के लिए स्थानीय किसान खुद अपनी जमीन दे रहे हैं. कदवा के आश्रमपुर टोला के किसान अरुण यादव ने गांव में गरुड़ के लिए एक छोटा सा अस्पताल खोलने के लिए अपनी ज़मीन भी दे दी है.
‘गरुड़ हमारे हैं’
चार बच्चों के पिता अरुण ने जब ये फ़ैसला लिया तो घर में किसी ने विरोध नहीं किया. अरुण कहते हैं, “ ये गरुड़ हमारे हैं. तो इनकी सेवा की ज़िम्मेदारी भी हमारी है और सेवा होगी तभी संख्या बढ़ेगी.”
कई स्थानीय ग्रामीणों ने इन पंरिदों के लिए न केवल अस्पताल खोला है बल्कि उन्हें चोट लगने पर प्राथमिक उपचार देने का प्रशिक्षण भी लिया है.
साल 2006 तक लोगों का ये मानना था कि ये दुर्लभ प्रजाति कंबोडिया और असम में ही प्रजनन करती हैं. लेकिन 2006 में इनके घोसलों को पहली बार भागलपुर के कदवा दियारा में देखा गया जहां इनकी संख्या 78 पाई गई.
इसके बाद भागलपुर में बने मंदार नेचर क्लब ने इन परिंदों के संरक्षण की पहल की. क्लब ने इस काम के लिए विभिन्न पंचायतों के 22 टोलों का सहयोग लिया.
महत्व
मंदार नेचर क्लब के संस्थापक अरविन्द मिश्र कहते हैं, “हमने इस प्रजाति को बचाने के लिए लोगों को गरुड़-पुराण से लेकर खेती तक में इसका महत्व समझाया. हर टोले में लोगों को जोड़ा, हमने हर टोले से 4-5 सक्रिय सदस्य बनाए जो हमारे नेटवर्क की तरह काम करते हैं.”
स्थानीय लोगों की मदद से अब यहाँ गरुड़ों की संख्या 400 से अधिक हो चुकी है. सितंबर महीने में ये पक्षी इस इलाक़े में प्रजनन के लिए आते हैं और मार्च के आखिर तक अपने बच्चों को साथ लेकर उड़ जाते हैं.
गांव वाले सिर्फ पक्षी की सेवा ही नहीं करते बल्कि गुलगुलवा (घुमंतू शिकारी) से उनकी रक्षा भी करते है.
फ़ायदेमंद
इन टोलों में जागरूकता कार्यक्रम चलाने वाले जयनंदन बताते हैं, “इन पक्षियों के अंडे पहले गुलगुलवा लोग ले जाते थे. लेकिन जब ग्रामीणों को इनके महत्व के बारे में मालूम चला तो उन्होंने गुलगुलवा लोगों को खदेड़ना शुरू कर दिया.”
ग्रेटर एडजुटेंट की संख्या बढ़ने से सबसे ज़्यादा फ़ायदा खेती में हुआ है.
50 साल की रत्नमाला कहती हैं, “जब पहली फ़सल होती है तो ये हमारे साथ खेत में ही घूमते रहते हैं और जहां चूहा देखते हैं वहीं पकड़ कर खा जाते हैं. चूहों से फसल को जो नुकसान होता था अब वो बहुत कम हो गया है.”
बदले हालात
साल 2006 से अबतक हालात कितने बदल चुके हैं इसका अंदाज़ा कासिमपुर टोले के बालमुकुंद से बात कर लगता है.
वो कहते हैं, “आप बस गरुड़ के विरोध में बोलकर दिखाइए, तब आपको पता चल जाएगा कि आप कितने पानी में है.”
विश्व के संकटग्रस्त पक्षियों की सूची में शामिल ग्रेटर एडजुटेंट भारत में भी वन्य प्राणी अधिनियम 1972 के अंतर्गत संरक्षित है.
यह कहानी BBC हिंदी पर पहले प्रकाशित की गयी थी.
You can also read about the breeding of Adjutant Storks in Bhagalpur district on the Wildlife Trust of India website